मैं जगत की नवल गीता-दृष्टि
मैं जगत की नवल गीता-दृष्टि
- मदनमोहन तरुण
क्रुद्ध कंस विरुद्ध वज्रिल दनुज अट्टाहास
कर-पदों की श्रृंखला झन झन झनकती
सजग प्रहरी के करों से कँपित कारावास।
गगन घन घिरघिर घुमड॰ घर्षण
हहर हर हर हर हहर वर्षण
देवकी के छलछलाये नयन
वेदना से कँपकँपाये बयन।
अर्ध रजनी विगत तम की विनत पलकें
प्रहरियों के नयन में घुल गये सपने
मधुर मुरली स्वरण सुठि दुखहरण सुमधुर
क्षितिज बन्धन मुक्त मधुरिम
ज्योति का अवतरण भास्वर
युगल मुखरण मौन
बाहु शत शत
चरण शत शत
अवनि अम्बर
स मा का र
वि रा ट
हे अतुल
अस्तित्वमय निःस्तित्व !
तुम नहीं माया
नहीं तुम
देव
दनुज न मनुज
तब तुम कौन ?
काल अन्ध प्रकोष्ठ बन्ध खुले खनक कर
प्राणियों की श्रृंखला टूटी झनक कर
थमित सिंधुर ज्वार ठिठके वायु के पदचाप
चतुर्दिक फैली प्रबोधन गुरु गभीरावाज -
'घनों का घर्षण प्रहर्षण विद्यु का प्रतिफलन
तमस पर मैं शशि विभा के सत्व का अवतरण
मैं तुम्हारी वेदना की साधना की सृष्टि
मैं जगत की नवल गीता –दृष्टि ।
कंस कुरु के वंश का विध्वंस
तिमिर पर मैं ज्योति रवि अवतंस।'
तनिक भर मुस्कान बोले फिर सहज भगवान-
'मैं कमल
मेरी सुरभि ब्रह्माण्ड का विस्तार
कृष्ण मैं भी , कृष्ण तुम भी , कृष्ण वह भी
देवकी जब से समझने लगी खुद को
तभी से यह हुआ अत्याचार ।
आज तू है श्रृंखला से मुक्त
क्योंकि तत्वम अहम से युक्त
खुल गये हैं नयन के सब द्वार
चतुर्दिक तू तू
तुम्हारा चतुर्दिक विस्तार।'
( मेरी यह कविता कुछेक पत्रिकाओं में ' कृष्णजन्म ' शीर्षक से प्रकाशित हुई थी । 1964 की ' भारती ' के कृष्णलीला विशेषांक के तत्कालीन सम्पादक
हिन्दी के सुप्रतिष्ठित साहित्यकार वीरेन्द्र कुमार जैन ने बडे॰ आयोजन के साथ इसका प्रकाशन किया और इसी कविता की एक पंक्ति
'मैं जगत की नवल गीतादृष्टि' को इसका शीर्षक दे दिया। यह शीर्षक मुझे भी बहुत उपयुक्त लगा। )
(2004 में प्रकाशित पुस्तक 'मैं जगत की नवल गीतादृष्टि' से साभार )
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