Tuesday, October 03, 2006

JyotiGanga

ज्योति गंगा
- मदनमोहन तरुण

बन्ध तोडो॰ , प्राण की सूखी धरा पर ,
ज्योति की गंगा उतरना चाहती है।

वृत्त की आवृत्ति, पुनरावृत्ति, कोल्हू के वृषभ - सा,
कर्म करना , उदर भरना , मृत्यु वरना , है न जीवन।
खोज है जीवन , गगन - विस्तार, सागर की गहनता,
और उद्घाटन घनों में बद्ध दिनकर की प्रखरता।

नयन खोलो ,गगन - घन - अंचल हटा कर,
विद्यु की वनिता विहँसना चाहती है।

मृत्यु की आराधना में भूल कोई रह गयी है ,
इसलिए तुम अमरता से रिक्त होकर रह गये हो।
चले थे तुम संग अपने ,सूर्य लेकर ,चन्द्र लेकर ,
किन्तु वे तम के सदन की अर्गला में बँध गये हैं।

खोल दो सब द्वार, दुग्धिल चन्द्रिका से ,
आज सरसा सिक्त होना चाहती है।


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