Saturday, October 21, 2006

अनागतकी प्रतीक्षा

अनागतकी प्रतीक्षा
मदनमोहन तरुण


मैंने देखा
ऋतुएँ
वृक्षों में
निरन्तर यात्रा करती हुई
दिशाओं की खोज कर रही थीं

और
वृक्ष अपनी तमाम उँगलियाँ
आकाश की ओर उठाए
साश्चर्य ऊपर देखते हुए
प्रश्नचकित थे

नदियाँ आपने घूर्णावर्तों में
खुद की तलाश कर रही थीं

सारे मार्ग
सागर- सागर
ज्वार- ज्वार
विकल थे

आकाश टूट- फूट रहा था
पृथ्वी आलोडि॰त - विलोडि॰त
हो रही थी

हवाएँ हूहती हुई
कुछ तलाश कर रही थीं

खोई हुई दिशाओं
और
धारासार वर्षा से मिटे- मिटे
इतिहास के
अचिह्नित मार्गों पर
फिसल - फिसल रहा था
स्तंभित समय

किन्तु
इस आलोड॰न - विलोड॰न की
विषम वेला में भी
सृष्टि के नाभि- केन्द्र पर
पृथ्वी
मेरी उँगली थामे
खडी॰ थी
उस अनागत की प्रतीक्षा में
जिसकी आँखों में
सपने होतो हैं।


(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मैं जगत की नवल गीता- दृष्टि' से साभार)

0 Comments:

Post a Comment

<< Home