कौन हो तुम
कौन हो तुम
मदनमोहन तरुण
तुम खडी॰ रहती हो परछाईं की तरह
जब सन्नाटे में सरक कर दीवारें
एक दूसरे से बतियाने लगती हैं।
तुम खडी॰ रहती हो परछाईं की तरह
जब दो सेनाओं के घायल सिपाही
शाम को
एक- दूसरे के जख्मों का दर्द पूछते हैं।
तुम खडी॰ रहती हो परछाई की तरह
जब मशीने कराहने लगती हैं थक कर
दिनभर की मिहनत के बाद।
तुम खडी॰ रहती हो परछाईं की तरह
मन के अछूते निविड॰ अंधकार में
जहाँ
कभी - कभी अपनी पहुँच भी नहीं होती।
तुम मौन की तरह क्या हो मेरे भीतर ?
तुम्हारा इस तरह सदा खडे॰ रहना मेरे पास
कई बार
मुझे भय से झुरझुरा देता है,
तुम्हारा जरा भी दूर जाना
मुझे निःसत्व कर देता है।
तुम मौन की तरह क्या हो मेरे भीतर ?
कौन हो तुम !
जो सदा खडी॰ रहती हो मेरे भीतर
परछाईं की तरह ?
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
' मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' से साभार)
मदनमोहन तरुण
तुम खडी॰ रहती हो परछाईं की तरह
जब सन्नाटे में सरक कर दीवारें
एक दूसरे से बतियाने लगती हैं।
तुम खडी॰ रहती हो परछाईं की तरह
जब दो सेनाओं के घायल सिपाही
शाम को
एक- दूसरे के जख्मों का दर्द पूछते हैं।
तुम खडी॰ रहती हो परछाई की तरह
जब मशीने कराहने लगती हैं थक कर
दिनभर की मिहनत के बाद।
तुम खडी॰ रहती हो परछाईं की तरह
मन के अछूते निविड॰ अंधकार में
जहाँ
कभी - कभी अपनी पहुँच भी नहीं होती।
तुम मौन की तरह क्या हो मेरे भीतर ?
तुम्हारा इस तरह सदा खडे॰ रहना मेरे पास
कई बार
मुझे भय से झुरझुरा देता है,
तुम्हारा जरा भी दूर जाना
मुझे निःसत्व कर देता है।
तुम मौन की तरह क्या हो मेरे भीतर ?
कौन हो तुम !
जो सदा खडी॰ रहती हो मेरे भीतर
परछाईं की तरह ?
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
' मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' से साभार)
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