Saturday, October 21, 2006

तुम्हें क्या मालूम

तुम्हें क्या मालूम
मदनमोहन तरुण

तुम्हें क्या मालूम
कि
तुमने
छुप - छूप कर
मुझे कितनी बार देखा है !

तुम्हें क्या मालूम
कि
तुमने
छुप - छुप कर
मुझे कितनी बार छुआ है !

तुम्हें क्या मालूम
कि
तुमने अपनी साँसों से
कितनी बार मुझसे कुछ कहा है !

तुम्हें क्या मालूम
कि
तुम मुझ पर
गुलाबी गंध की तरह
धारासार बरसती रही हो !


तुम्हारा यह
नींदभरी आँखों से देखना ही तो है
जो मुझे बार - बार रचता है
नये - नये अर्थों में,
नये - नये आयामों में
हर रोज सागर में उतरती
सुबह की नयी
धूप की नदी तरह !

तुम्हें क्या मालूम
कि
तुम मुझे पुकारती रहती हो
मेरी अतल गहराइयों के सन्नाटों में
अकेली यादों सी गूंजती हुई !


(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
' मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' से साभार)

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