Saturday, October 21, 2006

Magar Bachche

मगर बच्चे
मदनमोहन तरुण


मगर कहाँ
किस
रास्ते से आएगा
वसंत बन्धु !

कैलेण्डर की ऐसी कौन - सी तरीख है
जो
कम -से- कम अधजली न हो

कौन - सी
ऐसी जगह है
जहाँ बच्चे -बूढे॰ , औरतों तक को
निगल कर
अब भी जीभ लपलपाती आग न हो

आग
जो जमीन से नहीं
अब दीवारों के रेशे -रेशे में
रिसती हुई
आसमान तक पहुँचने लगी है

धुएँ से काले हैं
अधजले ठूँठ

आधा सूरज तक
काला है

हालत इतनी अजीब है कि
चिनगारियों को फूल समझ कर
लोग अपने हाथ जला बैठे हैं

वृक्षों की जडें॰ तक
सुलग रही हैं

मिट्टी की गहराइयों में भी
कोई चीज
सुरक्षित नहीं हैं

भाषाएँ तक खून से शराबोर हैं
कविताएँ तक धधक रही हैं

मगर धधकती आग के बीचोबीच
इस मैदान में
जहाँ अब भी बची है
थोडी॰ - सी हरी दूब
वहाँ
इस दुष्काल में भी
क्यों खडे॰ हैं
बच्चे
अपने हाथों में
गेंद और क्रिकेट का बल्ला लिए
एक - दूसरे को शरारत से धकेलते हुए

उनकी आँखों में
खौफ की जगह
अब भी कैसी चमक है !


(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मैं जगत की नवल गीता- दृष्टि' से साभार)

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