जेठन कुम्हार
जेठन कुम्हार
मदनमोहन तरुण
अब कहाँ मिलते हैं
मिट्टी के वैसे ही
लाल खनखनाते बर्तन !
कहाँ मिलते हैं
सोंधा -सोंधा भात पकानेवाले
छनछनाती छौंक से
बेचैन करनेवाले
बहुओं की खनकती चूडि॰योंवाले हाथों से
सवेरे मँजकर दपदपाते हुए
मिट्टी के बर्तन !
इतने पुराने कि दादी ने खरीदे थे
माँ ने पकाए
और
पतोहू ने बोए उसमें
पोई के बीज !
छप्पर पर अब भी लहराती है लता
रँगते हैं गुडि॰यों के दुपट्टे उससे बच्चे।
खाते हैं टोले के लोग उसकी साग
हो चाहे कोई दिन, तीज या चौथ ।
आज वैसा अबा नहीं लगता कोनाठी पर
जेठन कुम्हार के अबे जैसा।
पत्तों और गोयठे की
तेज मगर मीठी आँच में सुलगता
अपने प्राणों की अथाह ऊष्मा से
मिट्टी के बर्तनों की रग- रग सींच कर
उसे समय की चुनौती भरी जिन्दगी देता ?
वही आग है,
पत्तियाँ भी वही हों
शायद जेठन कुम्हार भी हों वहीं कहीं
परन्तु,
अब कहाँ मिलते हैं
मिट्टी के वैसे ही
लाल; खनकते बर्तन !
ऐसा नहीं कि
ये मिट्टी के बर्तन कभी टूटते ही नहीं थे
परन्तु
उनकी टूटन वर्षों टूटती थी
दिल की गहराइयों में
चिसक- चिसक कर।
दादी अब भी कहती हैं याद करती हुई
बर्षों तेल से सहेजी हुई कडा॰ही थी
मिट्टी की
जेठन की बनाई हुई
एक दिन जरा-सा चिसक गई
चाँदी के बहुँटे से टकरा कर
मेरी बडी॰ सास ने बनाई थी उसमें
मेरी शादी की पहली साग
उस चिसकन की मसक
कहीं अब भी है दादी में
खूब पकी तेल से सहेजी हुई
मिट्टी की कडा॰ही थी
जो टूटी थी बरसों पहले।
ढाबे पर ईंटों के भट्ठों का नया जंगल है
ठेकेदारों का।
कड॰क आवाजें गूँजती रहती हैं
दिन-रात
और सहमें हुए
काले-काले थरथराते पाँव
गूँदते रहते हैं मिट्टी
जिसमें राख - ही राख है
न गोलकपुर का वह खेत है
न वह बुढ॰वा बड॰
अपनी छाती पर सम्हाले
अपने पिछले जनम का
कर्जदार लँगडा॰ ताड॰ का पेड॰।
न वह छतनार भुतहा पाँकड॰ का पेड॰
न झिरमिर पत्तियोंवाला पीपल।
वहाँ अब घर हैं
नयी आबादी है
चेहरे हरे हैं
घी से चमकती हैं मूँछें
खेतों में हरियाली है पहले से ज्यादा
तने हैं खतों में जवान भुट्टे
कलँगीदार ज्वार
ककडी॰ - खीरे
छलाँग लगाते हैं
बकरी के नये शोख बच्चे
स्कूल की टुनटुन बजती
भारी पीतल की घंटी
दूर - दूर तक फैलती हैं
बच्चों की किलकारियाँ...
अब महावीर जी का धाजा फहरता है
आसमान को छूता , हवा में लहराता हुआ...
मगर इन सबों के बीच
कहाँ हैं जेठन कुम्हार ?
कहाँ हैं वे मिट्टी के लाल खनकते बरतन
तरकारी की मजेदार छौंक से
जीभों पर पानी उगाते ?
रँगीली झनकदार चूडि॰यों वाली कलाइयों के सरकने
और हथेलियों के दबाव का मजा लेती
तेल चुपडी॰ दिलोंवाली सास -सी हाँडि॰याँ ...
जेठन कुम्हार फुसफुसाते हैं
अपनी उम्र की दलदलनुमा सुरंग के भीतर से-
बबुआ जी !
वही हाथ हैं , मगर बिके हुए।
वही चाक है , मगर इसे हाथ नहीं घुमाते
अबा भी कमोबेसी वही है
करीब - करीब वैसी ही है आग भी
मगर अब बर्तन की उम्र तय करते हैं
अनजाने
बडी॰ - बडी॰ पगढि॰यों वाले लोग
वे ही तय करते हैं
बेलस मिट्टी में राख का अनुपात...
अब जेठन कुम्हार
अपने एक-एक बरतन के साथ
न तो जन्म लेता
न तो मसक-मसक कर टूटता है
बहुओं और दादियों के दिलों में।
अब जेठन कुम्हार
एक बाजार है बबुआ जी !
जो कभी नहीं मरता
वह हर पल एक -से- इक्यावन होता रहता है
वह बिक - बिक कर खरीदा जाता है
और खरीद -खरीद कर बेचा जाता है
उसका हर बार टूटना
एक नया बाजार रचता है...
जेठन कुम्हार जितना कमजोर होगा
बाजार उतना ही बरजोर होगा।
ऐसे में कहाँ गढें॰
जेठन कुम्हार
अपना एक - एक जनम
कहाँ मरें अपनी एक - एक मौत !
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मदनमोहन तरुण
अब कहाँ मिलते हैं
मिट्टी के वैसे ही
लाल खनखनाते बर्तन !
कहाँ मिलते हैं
सोंधा -सोंधा भात पकानेवाले
छनछनाती छौंक से
बेचैन करनेवाले
बहुओं की खनकती चूडि॰योंवाले हाथों से
सवेरे मँजकर दपदपाते हुए
मिट्टी के बर्तन !
इतने पुराने कि दादी ने खरीदे थे
माँ ने पकाए
और
पतोहू ने बोए उसमें
पोई के बीज !
छप्पर पर अब भी लहराती है लता
रँगते हैं गुडि॰यों के दुपट्टे उससे बच्चे।
खाते हैं टोले के लोग उसकी साग
हो चाहे कोई दिन, तीज या चौथ ।
आज वैसा अबा नहीं लगता कोनाठी पर
जेठन कुम्हार के अबे जैसा।
पत्तों और गोयठे की
तेज मगर मीठी आँच में सुलगता
अपने प्राणों की अथाह ऊष्मा से
मिट्टी के बर्तनों की रग- रग सींच कर
उसे समय की चुनौती भरी जिन्दगी देता ?
वही आग है,
पत्तियाँ भी वही हों
शायद जेठन कुम्हार भी हों वहीं कहीं
परन्तु,
अब कहाँ मिलते हैं
मिट्टी के वैसे ही
लाल; खनकते बर्तन !
ऐसा नहीं कि
ये मिट्टी के बर्तन कभी टूटते ही नहीं थे
परन्तु
उनकी टूटन वर्षों टूटती थी
दिल की गहराइयों में
चिसक- चिसक कर।
दादी अब भी कहती हैं याद करती हुई
बर्षों तेल से सहेजी हुई कडा॰ही थी
मिट्टी की
जेठन की बनाई हुई
एक दिन जरा-सा चिसक गई
चाँदी के बहुँटे से टकरा कर
मेरी बडी॰ सास ने बनाई थी उसमें
मेरी शादी की पहली साग
उस चिसकन की मसक
कहीं अब भी है दादी में
खूब पकी तेल से सहेजी हुई
मिट्टी की कडा॰ही थी
जो टूटी थी बरसों पहले।
ढाबे पर ईंटों के भट्ठों का नया जंगल है
ठेकेदारों का।
कड॰क आवाजें गूँजती रहती हैं
दिन-रात
और सहमें हुए
काले-काले थरथराते पाँव
गूँदते रहते हैं मिट्टी
जिसमें राख - ही राख है
न गोलकपुर का वह खेत है
न वह बुढ॰वा बड॰
अपनी छाती पर सम्हाले
अपने पिछले जनम का
कर्जदार लँगडा॰ ताड॰ का पेड॰।
न वह छतनार भुतहा पाँकड॰ का पेड॰
न झिरमिर पत्तियोंवाला पीपल।
वहाँ अब घर हैं
नयी आबादी है
चेहरे हरे हैं
घी से चमकती हैं मूँछें
खेतों में हरियाली है पहले से ज्यादा
तने हैं खतों में जवान भुट्टे
कलँगीदार ज्वार
ककडी॰ - खीरे
छलाँग लगाते हैं
बकरी के नये शोख बच्चे
स्कूल की टुनटुन बजती
भारी पीतल की घंटी
दूर - दूर तक फैलती हैं
बच्चों की किलकारियाँ...
अब महावीर जी का धाजा फहरता है
आसमान को छूता , हवा में लहराता हुआ...
मगर इन सबों के बीच
कहाँ हैं जेठन कुम्हार ?
कहाँ हैं वे मिट्टी के लाल खनकते बरतन
तरकारी की मजेदार छौंक से
जीभों पर पानी उगाते ?
रँगीली झनकदार चूडि॰यों वाली कलाइयों के सरकने
और हथेलियों के दबाव का मजा लेती
तेल चुपडी॰ दिलोंवाली सास -सी हाँडि॰याँ ...
जेठन कुम्हार फुसफुसाते हैं
अपनी उम्र की दलदलनुमा सुरंग के भीतर से-
बबुआ जी !
वही हाथ हैं , मगर बिके हुए।
वही चाक है , मगर इसे हाथ नहीं घुमाते
अबा भी कमोबेसी वही है
करीब - करीब वैसी ही है आग भी
मगर अब बर्तन की उम्र तय करते हैं
अनजाने
बडी॰ - बडी॰ पगढि॰यों वाले लोग
वे ही तय करते हैं
बेलस मिट्टी में राख का अनुपात...
अब जेठन कुम्हार
अपने एक-एक बरतन के साथ
न तो जन्म लेता
न तो मसक-मसक कर टूटता है
बहुओं और दादियों के दिलों में।
अब जेठन कुम्हार
एक बाजार है बबुआ जी !
जो कभी नहीं मरता
वह हर पल एक -से- इक्यावन होता रहता है
वह बिक - बिक कर खरीदा जाता है
और खरीद -खरीद कर बेचा जाता है
उसका हर बार टूटना
एक नया बाजार रचता है...
जेठन कुम्हार जितना कमजोर होगा
बाजार उतना ही बरजोर होगा।
ऐसे में कहाँ गढें॰
जेठन कुम्हार
अपना एक - एक जनम
कहाँ मरें अपनी एक - एक मौत !
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
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