सन्नाटा
सन्नाटा
मदनमोहन तरुण
सन्नाटे की इस अगाध नदी में
पानी ही पानी है
यहाँ -से वहाँ तक एक नीला विस्तार
तटविहीन निर्बाध.....
नीचे गहराइयों में भरते हैं पक्षी उडा॰न
झील की ऊपरी अनंतता में
काँपती हैं पानी की पत्तियों की लम्बी कतार.....
धूप भीतर रास्ता बनाती है
चुप...चुप...चुप...चुप...चुपचाप.....
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मदनमोहन तरुण
सन्नाटे की इस अगाध नदी में
पानी ही पानी है
यहाँ -से वहाँ तक एक नीला विस्तार
तटविहीन निर्बाध.....
नीचे गहराइयों में भरते हैं पक्षी उडा॰न
झील की ऊपरी अनंतता में
काँपती हैं पानी की पत्तियों की लम्बी कतार.....
धूप भीतर रास्ता बनाती है
चुप...चुप...चुप...चुप...चुपचाप.....
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
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