Wednesday, November 29, 2006

कभी खिले हो

कभी खिले हो

मदनमोहन तरुण

कभी खिले हो
बियावान जंगल के
उन्मत्त गंधव्याकुल
फूल की तरह !

कभी ज्वारिल तरंगों
की तरह
उमडे॰ हो
कैमरा, प्रेस, टीवी, रेडियो
से दूर
सागर की तरह !

कभी चहक उठे हो
पक्षियों की तरह
सुबह की गुलाबी
छुवन से से व्याकुल
हवा के हल्के स्पर्श से
आह्लादित
शहर के बाहर की
अनजान दूरियों में !

कभी झर पडे॰ हो
सुनसान घाटियों में
निर्बाध
उच्छल
उन्माद के निर्झर की तरह !

कभी उड॰ पडे॰ हो
भविष्यरहित
अनाम
दिशाओं की ओर!

(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )

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