Wednesday, November 29, 2006

TUM JAISAA DEEKHTE HO

तुम जैसा दीखते हो

मदनमोहन तरुण

तुम्हारे ही जैसा मैं क्यों दिखूँ ?

जैसा तुम लिखते हो
वैसा ही मैं क्यों लिखूँ ?

क्यों घोलूँ मैं अपने पानी में
तुम्हारा रंग ?

क्यों लडूँ॰ मैं
तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं की जंग ?


सच है
शब्दों की दुनिया से अब मैं
अपने को निर्वासित अनुभव करता हूँ
किन्तु जानता हूँ
अब भी गाढा॰ है मेरी स्याही का रंग।

अकेला हुआ तो क्या हुआ
यह भी है जीने का एक ढंग।

क्या सागर नहीं दहाड॰ता
उस समय भी
जब होता है निपट अकेला !

गहराती हुई रात के सन्नाटे में
क्या फूल नहीं खिलते जंगलों में
जहाँ जानवर
उन्हें अपना भोजन से ज्यादा
और कुछ भी नहीं समझते ?

क्या नहीं गरजते बादल वीरानों में भी
जहाँ कोई उनकी आवाज नहीं सुनता ?

क्या नहीं चमक उठती है बिजली
सन्नाटों में भी
जहाँ उस पर कोई कविता नहीं लिखता ?

क्या अखवारों से परे कोई समाचार नहीं होता ?

क्या जुलूस गुजर जाने के बाद
सड॰क नहीं रहती ?

क्या फसल कट जाने के बाद खेत नहीं होते ?

क्या फल तोड॰ लिऐ जाने के बाद वृक्ष नहीं होते ?

लू से धधकते इस मौसम में उकठ काठ है तना
परन्तु भीतर जारी है यात्रा वसंत की।

कल हमारा है बन्धु !

बालू के भीतर गाती है नदी।

रोमशीर्षों पर लिखे जा रही हैं साँसें
अनागत की पुकार।

जैसा मेरा युग दीखता है
वैसा ही मैं क्यों दिखूँ ?

जैसा तुम लिखते हो
वैसा ही मैं क्यों लिखूँ ?

तुम्हारे ही जैसा मैं क्यों दिखूँ ?


(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )

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