Wednesday, November 29, 2006

टोटका

टोटका

मदनमोहन तरुण

तुम्हें नींद आगयी है, बन्धु !
वरना अपने शरीर के फूलने
और लाशनुमा होने का एहसास
केवल भ्रम है।

क्या कहा !
यहाँ चीटियाँ हैं ?
जंगली चूहे हैं ?
और ऊपर से चोंच साधे हुए
गीधों का विकराल दल
तुम्हारी ही ओर झपटता चला आ रहा है ?

नहीं बन्धु ! नहीं ,
यह केवल भ्रम है तुम्हारा
ऊपर तो रहते हैं केवल देवता
या
हमरे पूजनीय नेता
हमारे रखवाले
हमारे आगे - पीछे सदा चौकस।

ऊपर ही तो उडा॰न भरता है हमारा महान प्रजातंत्र
सतत प्रतीक्षित आनेवाले खुशहाली के दिनों को
अपने कंधों पर बिठाए हुए ।

क्या कहा ?
तुम्हें अपने चारों ओर
केवल जल्लाद नजर आते हैं
अपने खूनी पंजे छुपाए हुए ?

नही बन्धु ! नहीं,
यह केवल भ्रम है तुम्हारा
हमारे चारों ओर तो है
हमें रक्षाकवच -सी घेरे हुए
हमारी महान व्यवस्था
सब हमारे अपने ही तो हैं बन्धु !
दम भले घुट जाए
इन रक्षकों की भीड॰ में हमारा
मगर 'हम होंगे कामयाब एक दिन'।

क्या कहा ?
धधकती आँखोंवाले भूखे और भयावह पशुओं ने
तुम्हें घेर लिया है चारों ओर से ?
उनकी लपलपाती तेज लाल जिह्वा
बढ॰ रही है तुम्हारी ओर ?
नहीं बन्धु ! नहीं,
ये सब हमारे दफ्तर ,कार्यालय हैं
पवित्र संविधान के रखवाले
यही ढालते हैं हमारी -तुम्हारी तकदीरें।
ये सब हमारे कुशलाकांक्षी मित्र हैं , बन्धु !
हमारे शुभचिंतक हैं।
यहीं की फइलों के संसार में हमारा बसेरा है।
यहीं हम जीते हैं , मरते हैं
इसके पवित्र पन्नों के भीतर जिन्दगी भर
सर्वथा सुरक्षित।

तुम्हें नींद आरही है , बन्धु !
वरना चारों ओर कुशल है
व्यवस्था है
रक्षा है।

रथों पर सवार हैं हमारे अधिपति
हम पदगामियों की रक्षा में
खुले आसमान पर गगनयानों में उडा॰न भरते हुए।
मन्द- मन्द मुसकुराते हुए,
गाते,
मुख मे पान चहुलाते हुए
और अपनी रमणियों की
रेशमीली देहों में पिघलते हुए

ओह ! कितना सुन्दर दृश्य है, बन्धु !

कहो सब कैसा लग रहा है तुम्हें, मित्र !

अरे तुम तो काँपते हुए
अपनी हड्डियों में कनकनाहट अनुभव करने लगे !

घबराओ नही, मित्र !बहादुर बनो।
नकार दो जो भी सामने हो,
हो चाहे मौत ही खडी॰ ।

देखो , हर कोई चिंतित है
केवल तुम्हारे लिए।
देखो तुम्हारे दरवाजे पर टँग गए टोटके
मौत को डराने वाले
मौत से भी भयानक।

बाहर पागल कर देनेवाली आवाज में
बज रहे हैं
ढोल
बैंड की धुनों पर नाच रहे हैं
मद्यविलसित महाधिपति,
अपनी वयवसथा की जाँघ - में जाँघ डाले
होठों -से -होंठ चुसकारते
धधकती योनियों में हविषार्पण करते हुए
तांत्रिक क्रियाओं में मग्न है सारी व्यवस्था
सिर्फ तुम्हारे लिए , मित्र ! सिर्फ तुम्हारे ही लिए।

इस भयावह बर्फीली आँधी की रात में भी
दौड॰ रहे हैं लोहे के हाथी चिघ्घाड॰ते हुए।

क्या कहा,
तुम्हारी चारपायी टूट गयी है ?
तुम्हारी पीठ महसूस कर रही है मिट्टी का गीलापन ?
धसक रही है धरती तुम्हारे नीचे से ?

नहीं मित्र ! नहीं,
यह सब केवल भ्रम है तुम्हारा
यहाँ सबकुछ सुरक्षित है
जीवन , मौत
सबकुछ।

(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
' मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' से साभार)


,।

2 Comments:

Blogger Pratik Pandey said...

हिन्दी ब्लॉग मण्डल में आपका हार्दिक स्वागत् है। उम्मीद है निरन्तर नई-नई कविताएँ पढ़ने को मिलती रहेंगी।

HindiBlogs.com

10:06 AM  
Blogger MadanMohan Tarun said...

Thanks ,Pratik ji. I will try my best to display my poems regularly here.Heartiest welcome!

6:18 AM  

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