Wednesday, November 29, 2006

सोलहवाँ वर्ष

सोलहवाँ वर्ष
मदनमोहन तरुण

जब मैंने तुम्हें देखा था
तुम्हारी आँखें
सोलहवें वर्ष का उत्सव मना रही थीं
और हवाओं की हरी डालियों में फूल
झुक - झुक कर नाच रहे थे

तरंगें किलकारियाँ भर कर
कुछ गा रही थीं
और हवा में उड॰ती जा रही थी
एक पतंग
अपनी चोंच
ऊपर की ओर उठाए

कितना अजीब था वह क्षण
जब सुबह की ललौंछ गोरी धूप
हल्दी में रँग रही थी अपनी चूनर
और पक्षी
नीडों॰ से बाहर थे
नये आसमान
नयी जमीन
नयी दिशाओं को निहारते हुए
जिस पर वसंत का पहला चुंबन
हरिया उठा था।

(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मैं जगत की नवल गीता- दृष्टि' से साभार)

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