Wednesday, November 29, 2006

देह से होते हुए

देह से होते हुए
मदनमोहन तरुण

तुम्हारा शरीर आत्मा है
और
तुम्हारा रूप परमात्मा
तुम्हारी बडी॰- बडी॰
पलकों की छाया में
मैं एक अनुभूति भर शेष हूँ

हम एक गर्म गुलाबी सोते की तरह
पिघल कर एकाकार हो रहे हैं
कुछ भी शेष नहीं है
सिर्फ एक अनुभूति के सिवा

यहाँ सुबह की गुलाबी आभा में
दूधिया चाँदनी जादू कर रही है
सूर्य में घुल गया है
बूँद -बूँद चन्द्रमा
दिशाएँ मदहोश
खुद को पी रही हैं

आज पृथ्वी फूल- सी खिल कर
पहली बार कुछ बोल रही है

इसे क्या नाम दोगे ?
रसानन्द ! महानन्द ! ब्रह्मानन्द !


(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मैं जगत की नवल गीता- दृष्टि'
से साभार)

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