शक्ति अवतरण
- मदनमोहन तरुण
घं घननन घं घननन
घंटास्वन से
हो गया निनादित गगनलोक
भुं भूऊँऊँऊँग... भूऊँऊँऊँग...भुं भूऊँऊँऊँग... भूऊँऊँऊँग
शंखध्वनि व्यापी दिशा दिशा
डिम डिमिक डिमिक डिम डिमिक डिमिक
डिम नटित शंभु हो गये
झमक झंझा झकोरने लगी
और वेदों के मुख खुल गये
वर्ण प्रार्थना निरत हो गये
तभी
शतकोटि सूर्य की आभा से नभ प्रोद्भासित हो उठा।
विद्यु सी चढी॰ सिंह पर भ्रू -कमान खींचे
मुस्काती शक्ति उतरने लगीं
दिशाएँ मंत्रमुग्ध रह गयीं
स्नेह का पवन प्रवाहित हुआ
कृपा की वृष्टि बरसने लगी।
देवता, दनुज - मनुज का भेद
हृदय से पल में ही हट गया
आत्मबोधित सब जन हो गये
हर्ष से जड॰ -चेतन भर गया।
देवगण बोले आतुर बयन
बद्ध-कर आरत स्वर-
' हे जगन्मातृ ! ब्रह्माण्डधातृ !
तम का प्रकोप बढ॰ गया
सत्व की हार चतुर्दिक हुई
सृष्टि का अर्थ , व्यर्थ हो गया।
दनुज धरती से करने बलात्कार
उन्मत्त जभी हो गये
धरा पाताललोक में धँसी
सत्व के तत्व विगत हो गये।'
हो गयीं क्रुध्द देवी दहाड॰ने लगा सिंह
थर -थर पत्ते - सा लगा काँपने विश्वराज्य
बोलीं देवों से-
'मूढ॰ अपात्रों के कर में
निर्गुण सारी सिद्धियाँ तुरत हो जाती हैं।
जब स्वयं सत्व ले कर में तिमिर - कुठार
मूढ॰ , स्वाभाविक है तम का विरोध
मेरे सत्वासत्रों का मूढों॰ इतना निरोध
मेरे रचना-विधान का इतना दुरुपयोग ?'
ज्योंही उतरीं कालिका
समर के प्रांगण में
त्योहीं
मस्तक पर केश - अशेष फहरते -लहराते
ज्यों महानाश की घटा घुमड॰ - सी आयी हो
धन्वा -सी भौंहों पर पलकों की कसी डोर
विषबुझे शरों -सी चढी॰ वरुणियों की कतार
रक्तोष्ठ बीच असि - सी जिह्वा
विकराल बदन
गर्जन -तर्जन करता
अग- जग को थर्राता
अति अमावर्ण
विकराल काल- सा रुद्र
महिष पर चढा॰ हुआ
हिंसा
जैसे हो खडी॰
क्रुद्ध अति मूर्तिमान।
टूटा .... छूटा... गर्जा गभीर स्वर भर उछला
थरथरा गयी धरती
नभ
अब टूटा… तब टूटा… हुआ ।
करवाल उठाया करने को ज्योंही प्रहार
देवी मुसकाईं विश्वविमोहन एक बार
शक्ति के नयन से दो तीखी रश्मियाँ निकल
महिषासुर की आँखों से उर में उतर
ऊर्ध्व हो खिला ज्योति का सहस्रार
तन के रेशे - रेशे में जाकर रिसीं
पेशियों में उमेठ -सी हुई
सिन्धु के ज्वार टूटने लगे
खडग कर में पकडे॰ रह गया
सौम्य बन हिंसा ठिठकी रही
महिष की आँखों में अनुराग
हृदय में पुलक मृदुल भर गया।
दनुज बोला दुर्गा को देख
अहे ! तुम कौन ?
तुम मोहन की रासोत्मंग साकार
याकि तुम खुद मुरली की तान ?
सौन्दर्यसिन्धु की मंत्र प्रणयमोहित तरंग
सपनों से विरचित तेरा स्नेहिल अंग - अंग।
तुम उतर गगन से एक चन्द्ररेखा - सी
युद्ध के रौद्र में मोहन रसलेखा -सी।
दिशाएँ अंक,
धरा पद्मासनस्थ
तुम्हारी आँखों में नीरव नभ का असीम विस्तार
हृदय में सत्वसिन्धु शुक्ला -तरंग
अधरों में अमृत रसानंद
तुम्हारे रवि-शशि युगल उरोज
दिगम्बर -विकसित -तन -कम्बोज
केश-तम में मुख -उषा उदोत
चरण में पायल की झंकार
दृष्टि का अर्थ , सृष्टि का गान।
कांत अति सरस स्निग्ध सुकुमार
किये निज करतल का विस्तार
दे रही रक्षा का आश्वासन
तेरी छाया में ब्रह्माण्ड।
सत्व में भींग रहा है तम
अमा पर शुक्ला का अवतरण
ओह ! तुम कौन ?
दुर्गा मुस्काई मृदुल मधुर
हेर कर दृष्टि -सम्मोहन
मोहन दिशा-दिशा
नभ अरुण
तरुण हो गया सृष्टि का अंग -अंग
छाया वसंत
आयत्त हुआ ब्रह्माणड सकल
शुक्ल का एक आलोकवृत्त छा गया
दुर्गा के दश बाहुल दिगन्त
विस्तृत अनंत हो गये
दानव ने देखा हेर स्वयम को
वह दुर्गा
दुर्गा यह जग , दुर्गा यह अग
ब्रह्माण्ड महामंदिर में करता हुआ नाद
गूँजा यह स्वर
दुर्गा ... दुर्गा...दुर्गा... दुर्गा...केवल दुर्गा...
*
(मेरी यह कविता १९६२ के सितम्बर महीने की 'भारती' के विशेषांक में प्रकाशित हुई थी।
इसका पुनः प्रकाशन मेरी पुस्तक 'मैं जगत की नवल गीता-दृष्टि' में २००४ में हुआ।यह वहीं
से उद्धृत है।)
( 'मैं जगत की नवल गीता -दृष्टि' से साभार )