Monday, August 11, 2025
Tuesday, October 01, 2013
Tuesday, March 13, 2012
MUN PEECHHE BHAAGTAA HAI
मन
पीछे भागता है
मदनमोहन
तरुण
याद
आ रही पुराने मित्रों की
छूट
रहे पीछे सब चित्रों की।
नहीं
रहे बाबूजी ,नहीं रहे बाबा
मइया
भी नहीं रही ,नहीं रहीं मामा।
तोता
को कौन अब पढा॰एगा
राम
नाम उसे कौन सि खाएगा
?
बोलsss
रुपू बोल sss
राम-
राम कहsss मुँह खोल sss।
कहाँ
गये विजय बाबू , मन अकुलाता है
भीतर
से नाम ले- ले कैसे चिल्लाता है!
ऊपर
से लगता हूँ मैं कितना शांत
भीतर
मन मथता है होकर आक्रांत।
पूछते
हैं लोग, कौन गाँव , कौन पुर
क्या
बताऊँ चला आया मैं कितनी दूर?
सबकुछ
है, बेटा, पुतोह ,पोता- पोती हैं
बेटी
–दामाद, बीबी आँख की जोती है
खुश
हैं सब बहनें ,बहनोई आबाद हैं
नाती
- नतिनी खुश हैं ,घर में गुंजार है
भाई
पटना में परिवार खुशहाल है
मगर
घेर लेती हैं सब पुरानी यादें
वर्तमान
बीते दिनों के पीछे भागे।
श्वसुर
जी की याद बहुत आती है
पत्नी
जब डबडब आँखों से बतियाती हैं
सास
नहीं रहीं ,नहीं रहा कोई अपना
मायका
अब हुआ उनकी आँखों का सपना।
मामू
को याद अब नहीं रहता
सामने
पडा॰ है क्या बैगन या भर्ता ?
दीदी
की याद बहुत आती है
मामा
की दुलारी , आँख मेरी भर आती है
सबका
दुख - सुख अपना - अपना है
सच
कहो तो जिन्दगी यह सपना है।
बादलों
में कुछ चेहरे बनते हैं, मिटते हैं
कुछ
तुरत खो जाते , कुछ जरा टिकते हैं।
जब
मैं इस कमरे में होता हूँ
लगता
है आँगन में सोता हूँ
मामा
सुनाती हैं खिस्सा
कहाँ
गये राजा, कहाँ गयीं रानी
बखरा
,बँटवारा और अलग -अलग हिस्सा
सोच-
सोच मन होता कैसा
सागर
में ज्वार उठे जैसा।
कितना
अजीब है इंसान
चलती
का नाम कहे गाडी॰
पर
देखता है पीछे
और
भागता पिछाडी॰।
फेसबुक
के सब चेहरे मेरे हैं
यही
तो इस जिन्दगी के घेरे हैं
कौन
है अपना और कौन है परायाधं
फर्क
नहीं लगता अब , सब उसकी माया।
Copyright
reserved by MadanMohan Tarun
Sunday, October 18, 2009
An Old Tree
An Old Tree
- MadanMohan Tarun
There
It
Stands
An
Old
Dry
Leafless
Lonely
T
R
E
E
For years and years
Spring
The king of seasons
Has spent his days of glory here
With its green branches in their full youth
Swinging with the touch of playful winds
with its dancing leafs
with their copper coloured enchanting smiles
Birds
With their multi colored wings
And with soulful melody of their songs
With their chirping brothers and sisters
Have kept its nests lively
For years and years
This tree
Has danced with raining clouds and winds
To the best of treasures of its memories
It has proved its existence
Before the roaring storms and flaming lightning
It has led a life of a king
And has always tried to touch the sky
With its ambitions
Blessed with undefeatable body and wings
Gone are those days
Years and years have passed
Birds have left him for ever
No body knows
What they do,
Live they where ?
Clouds come
Comes rain
Comes the king of spring
But not here
They are different
from that generation
Even
Eyes of memories have lost their sight
Soul at times moans
Badly hurt from the deep scratches and bites of time.
There
It
Stands
An old
Dry
Leafless
Lonely
T
R
E
E
- MadanMohan Tarun
There
It
Stands
An
Old
Dry
Leafless
Lonely
T
R
E
E
For years and years
Spring
The king of seasons
Has spent his days of glory here
With its green branches in their full youth
Swinging with the touch of playful winds
with its dancing leafs
with their copper coloured enchanting smiles
Birds
With their multi colored wings
And with soulful melody of their songs
With their chirping brothers and sisters
Have kept its nests lively
For years and years
This tree
Has danced with raining clouds and winds
To the best of treasures of its memories
It has proved its existence
Before the roaring storms and flaming lightning
It has led a life of a king
And has always tried to touch the sky
With its ambitions
Blessed with undefeatable body and wings
Gone are those days
Years and years have passed
Birds have left him for ever
No body knows
What they do,
Live they where ?
Clouds come
Comes rain
Comes the king of spring
But not here
They are different
from that generation
Even
Eyes of memories have lost their sight
Soul at times moans
Badly hurt from the deep scratches and bites of time.
There
It
Stands
An old
Dry
Leafless
Lonely
T
R
E
E
Labels: Gone are those days
Wednesday, November 29, 2006
टोटका
टोटका
मदनमोहन तरुण
तुम्हें नींद आगयी है, बन्धु !
वरना अपने शरीर के फूलने
और लाशनुमा होने का एहसास
केवल भ्रम है।
क्या कहा !
यहाँ चीटियाँ हैं ?
जंगली चूहे हैं ?
और ऊपर से चोंच साधे हुए
गीधों का विकराल दल
तुम्हारी ही ओर झपटता चला आ रहा है ?
नहीं बन्धु ! नहीं ,
यह केवल भ्रम है तुम्हारा
ऊपर तो रहते हैं केवल देवता
या
हमरे पूजनीय नेता
हमारे रखवाले
हमारे आगे - पीछे सदा चौकस।
ऊपर ही तो उडा॰न भरता है हमारा महान प्रजातंत्र
सतत प्रतीक्षित आनेवाले खुशहाली के दिनों को
अपने कंधों पर बिठाए हुए ।
क्या कहा ?
तुम्हें अपने चारों ओर
केवल जल्लाद नजर आते हैं
अपने खूनी पंजे छुपाए हुए ?
नही बन्धु ! नहीं,
यह केवल भ्रम है तुम्हारा
हमारे चारों ओर तो है
हमें रक्षाकवच -सी घेरे हुए
हमारी महान व्यवस्था
सब हमारे अपने ही तो हैं बन्धु !
दम भले घुट जाए
इन रक्षकों की भीड॰ में हमारा
मगर 'हम होंगे कामयाब एक दिन'।
क्या कहा ?
धधकती आँखोंवाले भूखे और भयावह पशुओं ने
तुम्हें घेर लिया है चारों ओर से ?
उनकी लपलपाती तेज लाल जिह्वा
बढ॰ रही है तुम्हारी ओर ?
नहीं बन्धु ! नहीं,
ये सब हमारे दफ्तर ,कार्यालय हैं
पवित्र संविधान के रखवाले
यही ढालते हैं हमारी -तुम्हारी तकदीरें।
ये सब हमारे कुशलाकांक्षी मित्र हैं , बन्धु !
हमारे शुभचिंतक हैं।
यहीं की फइलों के संसार में हमारा बसेरा है।
यहीं हम जीते हैं , मरते हैं
इसके पवित्र पन्नों के भीतर जिन्दगी भर
सर्वथा सुरक्षित।
तुम्हें नींद आरही है , बन्धु !
वरना चारों ओर कुशल है
व्यवस्था है
रक्षा है।
रथों पर सवार हैं हमारे अधिपति
हम पदगामियों की रक्षा में
खुले आसमान पर गगनयानों में उडा॰न भरते हुए।
मन्द- मन्द मुसकुराते हुए,
गाते,
मुख मे पान चहुलाते हुए
और अपनी रमणियों की
रेशमीली देहों में पिघलते हुए
ओह ! कितना सुन्दर दृश्य है, बन्धु !
कहो सब कैसा लग रहा है तुम्हें, मित्र !
अरे तुम तो काँपते हुए
अपनी हड्डियों में कनकनाहट अनुभव करने लगे !
घबराओ नही, मित्र !बहादुर बनो।
नकार दो जो भी सामने हो,
हो चाहे मौत ही खडी॰ ।
देखो , हर कोई चिंतित है
केवल तुम्हारे लिए।
देखो तुम्हारे दरवाजे पर टँग गए टोटके
मौत को डराने वाले
मौत से भी भयानक।
बाहर पागल कर देनेवाली आवाज में
बज रहे हैं
ढोल
बैंड की धुनों पर नाच रहे हैं
मद्यविलसित महाधिपति,
अपनी वयवसथा की जाँघ - में जाँघ डाले
होठों -से -होंठ चुसकारते
धधकती योनियों में हविषार्पण करते हुए
तांत्रिक क्रियाओं में मग्न है सारी व्यवस्था
सिर्फ तुम्हारे लिए , मित्र ! सिर्फ तुम्हारे ही लिए।
इस भयावह बर्फीली आँधी की रात में भी
दौड॰ रहे हैं लोहे के हाथी चिघ्घाड॰ते हुए।
क्या कहा,
तुम्हारी चारपायी टूट गयी है ?
तुम्हारी पीठ महसूस कर रही है मिट्टी का गीलापन ?
धसक रही है धरती तुम्हारे नीचे से ?
नहीं मित्र ! नहीं,
यह सब केवल भ्रम है तुम्हारा
यहाँ सबकुछ सुरक्षित है
जीवन , मौत
सबकुछ।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
' मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' से साभार)
,।
मदनमोहन तरुण
तुम्हें नींद आगयी है, बन्धु !
वरना अपने शरीर के फूलने
और लाशनुमा होने का एहसास
केवल भ्रम है।
क्या कहा !
यहाँ चीटियाँ हैं ?
जंगली चूहे हैं ?
और ऊपर से चोंच साधे हुए
गीधों का विकराल दल
तुम्हारी ही ओर झपटता चला आ रहा है ?
नहीं बन्धु ! नहीं ,
यह केवल भ्रम है तुम्हारा
ऊपर तो रहते हैं केवल देवता
या
हमरे पूजनीय नेता
हमारे रखवाले
हमारे आगे - पीछे सदा चौकस।
ऊपर ही तो उडा॰न भरता है हमारा महान प्रजातंत्र
सतत प्रतीक्षित आनेवाले खुशहाली के दिनों को
अपने कंधों पर बिठाए हुए ।
क्या कहा ?
तुम्हें अपने चारों ओर
केवल जल्लाद नजर आते हैं
अपने खूनी पंजे छुपाए हुए ?
नही बन्धु ! नहीं,
यह केवल भ्रम है तुम्हारा
हमारे चारों ओर तो है
हमें रक्षाकवच -सी घेरे हुए
हमारी महान व्यवस्था
सब हमारे अपने ही तो हैं बन्धु !
दम भले घुट जाए
इन रक्षकों की भीड॰ में हमारा
मगर 'हम होंगे कामयाब एक दिन'।
क्या कहा ?
धधकती आँखोंवाले भूखे और भयावह पशुओं ने
तुम्हें घेर लिया है चारों ओर से ?
उनकी लपलपाती तेज लाल जिह्वा
बढ॰ रही है तुम्हारी ओर ?
नहीं बन्धु ! नहीं,
ये सब हमारे दफ्तर ,कार्यालय हैं
पवित्र संविधान के रखवाले
यही ढालते हैं हमारी -तुम्हारी तकदीरें।
ये सब हमारे कुशलाकांक्षी मित्र हैं , बन्धु !
हमारे शुभचिंतक हैं।
यहीं की फइलों के संसार में हमारा बसेरा है।
यहीं हम जीते हैं , मरते हैं
इसके पवित्र पन्नों के भीतर जिन्दगी भर
सर्वथा सुरक्षित।
तुम्हें नींद आरही है , बन्धु !
वरना चारों ओर कुशल है
व्यवस्था है
रक्षा है।
रथों पर सवार हैं हमारे अधिपति
हम पदगामियों की रक्षा में
खुले आसमान पर गगनयानों में उडा॰न भरते हुए।
मन्द- मन्द मुसकुराते हुए,
गाते,
मुख मे पान चहुलाते हुए
और अपनी रमणियों की
रेशमीली देहों में पिघलते हुए
ओह ! कितना सुन्दर दृश्य है, बन्धु !
कहो सब कैसा लग रहा है तुम्हें, मित्र !
अरे तुम तो काँपते हुए
अपनी हड्डियों में कनकनाहट अनुभव करने लगे !
घबराओ नही, मित्र !बहादुर बनो।
नकार दो जो भी सामने हो,
हो चाहे मौत ही खडी॰ ।
देखो , हर कोई चिंतित है
केवल तुम्हारे लिए।
देखो तुम्हारे दरवाजे पर टँग गए टोटके
मौत को डराने वाले
मौत से भी भयानक।
बाहर पागल कर देनेवाली आवाज में
बज रहे हैं
ढोल
बैंड की धुनों पर नाच रहे हैं
मद्यविलसित महाधिपति,
अपनी वयवसथा की जाँघ - में जाँघ डाले
होठों -से -होंठ चुसकारते
धधकती योनियों में हविषार्पण करते हुए
तांत्रिक क्रियाओं में मग्न है सारी व्यवस्था
सिर्फ तुम्हारे लिए , मित्र ! सिर्फ तुम्हारे ही लिए।
इस भयावह बर्फीली आँधी की रात में भी
दौड॰ रहे हैं लोहे के हाथी चिघ्घाड॰ते हुए।
क्या कहा,
तुम्हारी चारपायी टूट गयी है ?
तुम्हारी पीठ महसूस कर रही है मिट्टी का गीलापन ?
धसक रही है धरती तुम्हारे नीचे से ?
नहीं मित्र ! नहीं,
यह सब केवल भ्रम है तुम्हारा
यहाँ सबकुछ सुरक्षित है
जीवन , मौत
सबकुछ।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
' मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' से साभार)
,।
जेठन कुम्हार
जेठन कुम्हार
मदनमोहन तरुण
अब कहाँ मिलते हैं
मिट्टी के वैसे ही
लाल खनखनाते बर्तन !
कहाँ मिलते हैं
सोंधा -सोंधा भात पकानेवाले
छनछनाती छौंक से
बेचैन करनेवाले
बहुओं की खनकती चूडि॰योंवाले हाथों से
सवेरे मँजकर दपदपाते हुए
मिट्टी के बर्तन !
इतने पुराने कि दादी ने खरीदे थे
माँ ने पकाए
और
पतोहू ने बोए उसमें
पोई के बीज !
छप्पर पर अब भी लहराती है लता
रँगते हैं गुडि॰यों के दुपट्टे उससे बच्चे।
खाते हैं टोले के लोग उसकी साग
हो चाहे कोई दिन, तीज या चौथ ।
आज वैसा अबा नहीं लगता कोनाठी पर
जेठन कुम्हार के अबे जैसा।
पत्तों और गोयठे की
तेज मगर मीठी आँच में सुलगता
अपने प्राणों की अथाह ऊष्मा से
मिट्टी के बर्तनों की रग- रग सींच कर
उसे समय की चुनौती भरी जिन्दगी देता ?
वही आग है,
पत्तियाँ भी वही हों
शायद जेठन कुम्हार भी हों वहीं कहीं
परन्तु,
अब कहाँ मिलते हैं
मिट्टी के वैसे ही
लाल; खनकते बर्तन !
ऐसा नहीं कि
ये मिट्टी के बर्तन कभी टूटते ही नहीं थे
परन्तु
उनकी टूटन वर्षों टूटती थी
दिल की गहराइयों में
चिसक- चिसक कर।
दादी अब भी कहती हैं याद करती हुई
बर्षों तेल से सहेजी हुई कडा॰ही थी
मिट्टी की
जेठन की बनाई हुई
एक दिन जरा-सा चिसक गई
चाँदी के बहुँटे से टकरा कर
मेरी बडी॰ सास ने बनाई थी उसमें
मेरी शादी की पहली साग
उस चिसकन की मसक
कहीं अब भी है दादी में
खूब पकी तेल से सहेजी हुई
मिट्टी की कडा॰ही थी
जो टूटी थी बरसों पहले।
ढाबे पर ईंटों के भट्ठों का नया जंगल है
ठेकेदारों का।
कड॰क आवाजें गूँजती रहती हैं
दिन-रात
और सहमें हुए
काले-काले थरथराते पाँव
गूँदते रहते हैं मिट्टी
जिसमें राख - ही राख है
न गोलकपुर का वह खेत है
न वह बुढ॰वा बड॰
अपनी छाती पर सम्हाले
अपने पिछले जनम का
कर्जदार लँगडा॰ ताड॰ का पेड॰।
न वह छतनार भुतहा पाँकड॰ का पेड॰
न झिरमिर पत्तियोंवाला पीपल।
वहाँ अब घर हैं
नयी आबादी है
चेहरे हरे हैं
घी से चमकती हैं मूँछें
खेतों में हरियाली है पहले से ज्यादा
तने हैं खतों में जवान भुट्टे
कलँगीदार ज्वार
ककडी॰ - खीरे
छलाँग लगाते हैं
बकरी के नये शोख बच्चे
स्कूल की टुनटुन बजती
भारी पीतल की घंटी
दूर - दूर तक फैलती हैं
बच्चों की किलकारियाँ...
अब महावीर जी का धाजा फहरता है
आसमान को छूता , हवा में लहराता हुआ...
मगर इन सबों के बीच
कहाँ हैं जेठन कुम्हार ?
कहाँ हैं वे मिट्टी के लाल खनकते बरतन
तरकारी की मजेदार छौंक से
जीभों पर पानी उगाते ?
रँगीली झनकदार चूडि॰यों वाली कलाइयों के सरकने
और हथेलियों के दबाव का मजा लेती
तेल चुपडी॰ दिलोंवाली सास -सी हाँडि॰याँ ...
जेठन कुम्हार फुसफुसाते हैं
अपनी उम्र की दलदलनुमा सुरंग के भीतर से-
बबुआ जी !
वही हाथ हैं , मगर बिके हुए।
वही चाक है , मगर इसे हाथ नहीं घुमाते
अबा भी कमोबेसी वही है
करीब - करीब वैसी ही है आग भी
मगर अब बर्तन की उम्र तय करते हैं
अनजाने
बडी॰ - बडी॰ पगढि॰यों वाले लोग
वे ही तय करते हैं
बेलस मिट्टी में राख का अनुपात...
अब जेठन कुम्हार
अपने एक-एक बरतन के साथ
न तो जन्म लेता
न तो मसक-मसक कर टूटता है
बहुओं और दादियों के दिलों में।
अब जेठन कुम्हार
एक बाजार है बबुआ जी !
जो कभी नहीं मरता
वह हर पल एक -से- इक्यावन होता रहता है
वह बिक - बिक कर खरीदा जाता है
और खरीद -खरीद कर बेचा जाता है
उसका हर बार टूटना
एक नया बाजार रचता है...
जेठन कुम्हार जितना कमजोर होगा
बाजार उतना ही बरजोर होगा।
ऐसे में कहाँ गढें॰
जेठन कुम्हार
अपना एक - एक जनम
कहाँ मरें अपनी एक - एक मौत !
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मदनमोहन तरुण
अब कहाँ मिलते हैं
मिट्टी के वैसे ही
लाल खनखनाते बर्तन !
कहाँ मिलते हैं
सोंधा -सोंधा भात पकानेवाले
छनछनाती छौंक से
बेचैन करनेवाले
बहुओं की खनकती चूडि॰योंवाले हाथों से
सवेरे मँजकर दपदपाते हुए
मिट्टी के बर्तन !
इतने पुराने कि दादी ने खरीदे थे
माँ ने पकाए
और
पतोहू ने बोए उसमें
पोई के बीज !
छप्पर पर अब भी लहराती है लता
रँगते हैं गुडि॰यों के दुपट्टे उससे बच्चे।
खाते हैं टोले के लोग उसकी साग
हो चाहे कोई दिन, तीज या चौथ ।
आज वैसा अबा नहीं लगता कोनाठी पर
जेठन कुम्हार के अबे जैसा।
पत्तों और गोयठे की
तेज मगर मीठी आँच में सुलगता
अपने प्राणों की अथाह ऊष्मा से
मिट्टी के बर्तनों की रग- रग सींच कर
उसे समय की चुनौती भरी जिन्दगी देता ?
वही आग है,
पत्तियाँ भी वही हों
शायद जेठन कुम्हार भी हों वहीं कहीं
परन्तु,
अब कहाँ मिलते हैं
मिट्टी के वैसे ही
लाल; खनकते बर्तन !
ऐसा नहीं कि
ये मिट्टी के बर्तन कभी टूटते ही नहीं थे
परन्तु
उनकी टूटन वर्षों टूटती थी
दिल की गहराइयों में
चिसक- चिसक कर।
दादी अब भी कहती हैं याद करती हुई
बर्षों तेल से सहेजी हुई कडा॰ही थी
मिट्टी की
जेठन की बनाई हुई
एक दिन जरा-सा चिसक गई
चाँदी के बहुँटे से टकरा कर
मेरी बडी॰ सास ने बनाई थी उसमें
मेरी शादी की पहली साग
उस चिसकन की मसक
कहीं अब भी है दादी में
खूब पकी तेल से सहेजी हुई
मिट्टी की कडा॰ही थी
जो टूटी थी बरसों पहले।
ढाबे पर ईंटों के भट्ठों का नया जंगल है
ठेकेदारों का।
कड॰क आवाजें गूँजती रहती हैं
दिन-रात
और सहमें हुए
काले-काले थरथराते पाँव
गूँदते रहते हैं मिट्टी
जिसमें राख - ही राख है
न गोलकपुर का वह खेत है
न वह बुढ॰वा बड॰
अपनी छाती पर सम्हाले
अपने पिछले जनम का
कर्जदार लँगडा॰ ताड॰ का पेड॰।
न वह छतनार भुतहा पाँकड॰ का पेड॰
न झिरमिर पत्तियोंवाला पीपल।
वहाँ अब घर हैं
नयी आबादी है
चेहरे हरे हैं
घी से चमकती हैं मूँछें
खेतों में हरियाली है पहले से ज्यादा
तने हैं खतों में जवान भुट्टे
कलँगीदार ज्वार
ककडी॰ - खीरे
छलाँग लगाते हैं
बकरी के नये शोख बच्चे
स्कूल की टुनटुन बजती
भारी पीतल की घंटी
दूर - दूर तक फैलती हैं
बच्चों की किलकारियाँ...
अब महावीर जी का धाजा फहरता है
आसमान को छूता , हवा में लहराता हुआ...
मगर इन सबों के बीच
कहाँ हैं जेठन कुम्हार ?
कहाँ हैं वे मिट्टी के लाल खनकते बरतन
तरकारी की मजेदार छौंक से
जीभों पर पानी उगाते ?
रँगीली झनकदार चूडि॰यों वाली कलाइयों के सरकने
और हथेलियों के दबाव का मजा लेती
तेल चुपडी॰ दिलोंवाली सास -सी हाँडि॰याँ ...
जेठन कुम्हार फुसफुसाते हैं
अपनी उम्र की दलदलनुमा सुरंग के भीतर से-
बबुआ जी !
वही हाथ हैं , मगर बिके हुए।
वही चाक है , मगर इसे हाथ नहीं घुमाते
अबा भी कमोबेसी वही है
करीब - करीब वैसी ही है आग भी
मगर अब बर्तन की उम्र तय करते हैं
अनजाने
बडी॰ - बडी॰ पगढि॰यों वाले लोग
वे ही तय करते हैं
बेलस मिट्टी में राख का अनुपात...
अब जेठन कुम्हार
अपने एक-एक बरतन के साथ
न तो जन्म लेता
न तो मसक-मसक कर टूटता है
बहुओं और दादियों के दिलों में।
अब जेठन कुम्हार
एक बाजार है बबुआ जी !
जो कभी नहीं मरता
वह हर पल एक -से- इक्यावन होता रहता है
वह बिक - बिक कर खरीदा जाता है
और खरीद -खरीद कर बेचा जाता है
उसका हर बार टूटना
एक नया बाजार रचता है...
जेठन कुम्हार जितना कमजोर होगा
बाजार उतना ही बरजोर होगा।
ऐसे में कहाँ गढें॰
जेठन कुम्हार
अपना एक - एक जनम
कहाँ मरें अपनी एक - एक मौत !
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
बूढा॰ पेड॰
बूढा॰ पेड॰
मदनमोहन तरुण
बूढा॰ पेड॰
ठूँठा पेड॰
जीवन से रूठा पेड॰
भरी हरियाली में
व्यंग्य-सा खडा॰ है।
कवि इसे आँकेगा
शब्दों में साधेगा
क्यों कि
वह जानता है
कि
ऋतुओं का राजा
वसंत
सदा इन्हीं
डालियोँ की
टेढी॰-मेढी॰
पगडंडियों से ही आता है।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मदनमोहन तरुण
बूढा॰ पेड॰
ठूँठा पेड॰
जीवन से रूठा पेड॰
भरी हरियाली में
व्यंग्य-सा खडा॰ है।
कवि इसे आँकेगा
शब्दों में साधेगा
क्यों कि
वह जानता है
कि
ऋतुओं का राजा
वसंत
सदा इन्हीं
डालियोँ की
टेढी॰-मेढी॰
पगडंडियों से ही आता है।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मृत्यु
मृत्यु
मदनमोहन तरुण
बँट गई
उमठ ऐंठन भरी
रस्सी
साँस
आँख
अटकी
र
ह
ग
ई
कैसी
फटी !
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मदनमोहन तरुण
बँट गई
उमठ ऐंठन भरी
रस्सी
साँस
आँख
अटकी
र
ह
ग
ई
कैसी
फटी !
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
हम कहाँ खिलें
हम कहाँ खिलें
मदनमोहन तरुण
सारे पन्ने तुम्हीं से भरे हैं
हम कहाँ खिलें ?
हर जगह तुम्हीं घेरे खडे॰ हो
हम कहाँ दिखें ?
पेडों॰ में, पौधों में, लताओं में
लिथडे॰ हो सिर्फ तुम्हीं,
हम कहाँ फलें ?
हर रोशनी तुम्हारे नाम से ही विज्यापित है
हम कहाँ बलें ?
हर पालने में गूँजती हैं तुम्हारी ही किलकारियाँ,
हम कहाँ पलें ?
डाली - डाली तुम्हारे नाम से ही सुरक्षित है
हम कहाँ खिलें ?
नदियों ,बियावानों, पहाडों॰, कछारों में
अब तुम्हीं तुम हो,
हम कहाँ मिलें ?
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मदनमोहन तरुण
सारे पन्ने तुम्हीं से भरे हैं
हम कहाँ खिलें ?
हर जगह तुम्हीं घेरे खडे॰ हो
हम कहाँ दिखें ?
पेडों॰ में, पौधों में, लताओं में
लिथडे॰ हो सिर्फ तुम्हीं,
हम कहाँ फलें ?
हर रोशनी तुम्हारे नाम से ही विज्यापित है
हम कहाँ बलें ?
हर पालने में गूँजती हैं तुम्हारी ही किलकारियाँ,
हम कहाँ पलें ?
डाली - डाली तुम्हारे नाम से ही सुरक्षित है
हम कहाँ खिलें ?
नदियों ,बियावानों, पहाडों॰, कछारों में
अब तुम्हीं तुम हो,
हम कहाँ मिलें ?
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
TUM JAISAA DEEKHTE HO
तुम जैसा दीखते हो
मदनमोहन तरुण
तुम्हारे ही जैसा मैं क्यों दिखूँ ?
जैसा तुम लिखते हो
वैसा ही मैं क्यों लिखूँ ?
क्यों घोलूँ मैं अपने पानी में
तुम्हारा रंग ?
क्यों लडूँ॰ मैं
तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं की जंग ?
सच है
शब्दों की दुनिया से अब मैं
अपने को निर्वासित अनुभव करता हूँ
किन्तु जानता हूँ
अब भी गाढा॰ है मेरी स्याही का रंग।
अकेला हुआ तो क्या हुआ
यह भी है जीने का एक ढंग।
क्या सागर नहीं दहाड॰ता
उस समय भी
जब होता है निपट अकेला !
गहराती हुई रात के सन्नाटे में
क्या फूल नहीं खिलते जंगलों में
जहाँ जानवर
उन्हें अपना भोजन से ज्यादा
और कुछ भी नहीं समझते ?
क्या नहीं गरजते बादल वीरानों में भी
जहाँ कोई उनकी आवाज नहीं सुनता ?
क्या नहीं चमक उठती है बिजली
सन्नाटों में भी
जहाँ उस पर कोई कविता नहीं लिखता ?
क्या अखवारों से परे कोई समाचार नहीं होता ?
क्या जुलूस गुजर जाने के बाद
सड॰क नहीं रहती ?
क्या फसल कट जाने के बाद खेत नहीं होते ?
क्या फल तोड॰ लिऐ जाने के बाद वृक्ष नहीं होते ?
लू से धधकते इस मौसम में उकठ काठ है तना
परन्तु भीतर जारी है यात्रा वसंत की।
कल हमारा है बन्धु !
बालू के भीतर गाती है नदी।
रोमशीर्षों पर लिखे जा रही हैं साँसें
अनागत की पुकार।
जैसा मेरा युग दीखता है
वैसा ही मैं क्यों दिखूँ ?
जैसा तुम लिखते हो
वैसा ही मैं क्यों लिखूँ ?
तुम्हारे ही जैसा मैं क्यों दिखूँ ?
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मदनमोहन तरुण
तुम्हारे ही जैसा मैं क्यों दिखूँ ?
जैसा तुम लिखते हो
वैसा ही मैं क्यों लिखूँ ?
क्यों घोलूँ मैं अपने पानी में
तुम्हारा रंग ?
क्यों लडूँ॰ मैं
तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं की जंग ?
सच है
शब्दों की दुनिया से अब मैं
अपने को निर्वासित अनुभव करता हूँ
किन्तु जानता हूँ
अब भी गाढा॰ है मेरी स्याही का रंग।
अकेला हुआ तो क्या हुआ
यह भी है जीने का एक ढंग।
क्या सागर नहीं दहाड॰ता
उस समय भी
जब होता है निपट अकेला !
गहराती हुई रात के सन्नाटे में
क्या फूल नहीं खिलते जंगलों में
जहाँ जानवर
उन्हें अपना भोजन से ज्यादा
और कुछ भी नहीं समझते ?
क्या नहीं गरजते बादल वीरानों में भी
जहाँ कोई उनकी आवाज नहीं सुनता ?
क्या नहीं चमक उठती है बिजली
सन्नाटों में भी
जहाँ उस पर कोई कविता नहीं लिखता ?
क्या अखवारों से परे कोई समाचार नहीं होता ?
क्या जुलूस गुजर जाने के बाद
सड॰क नहीं रहती ?
क्या फसल कट जाने के बाद खेत नहीं होते ?
क्या फल तोड॰ लिऐ जाने के बाद वृक्ष नहीं होते ?
लू से धधकते इस मौसम में उकठ काठ है तना
परन्तु भीतर जारी है यात्रा वसंत की।
कल हमारा है बन्धु !
बालू के भीतर गाती है नदी।
रोमशीर्षों पर लिखे जा रही हैं साँसें
अनागत की पुकार।
जैसा मेरा युग दीखता है
वैसा ही मैं क्यों दिखूँ ?
जैसा तुम लिखते हो
वैसा ही मैं क्यों लिखूँ ?
तुम्हारे ही जैसा मैं क्यों दिखूँ ?
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
तुम
तुम
मदनमोहन तरुण
यह तुम थीं चाँदनी रात में
बहती हुई नदी-सी।
तुम्हें देखा जल की गहराइयों में
खुलते गये दरवाजे
एक - के - बाद -एक....
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मदनमोहन तरुण
यह तुम थीं चाँदनी रात में
बहती हुई नदी-सी।
तुम्हें देखा जल की गहराइयों में
खुलते गये दरवाजे
एक - के - बाद -एक....
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मौसम
मौसम
मदनमोहन तरुण
कुहासे में झिलमिलाता चेहरा,
जैसे कोई आईने के सामने
आहें भर गया हो।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मदनमोहन तरुण
कुहासे में झिलमिलाता चेहरा,
जैसे कोई आईने के सामने
आहें भर गया हो।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
सन्नाटा
सन्नाटा
मदनमोहन तरुण
सन्नाटे की इस अगाध नदी में
पानी ही पानी है
यहाँ -से वहाँ तक एक नीला विस्तार
तटविहीन निर्बाध.....
नीचे गहराइयों में भरते हैं पक्षी उडा॰न
झील की ऊपरी अनंतता में
काँपती हैं पानी की पत्तियों की लम्बी कतार.....
धूप भीतर रास्ता बनाती है
चुप...चुप...चुप...चुप...चुपचाप.....
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मदनमोहन तरुण
सन्नाटे की इस अगाध नदी में
पानी ही पानी है
यहाँ -से वहाँ तक एक नीला विस्तार
तटविहीन निर्बाध.....
नीचे गहराइयों में भरते हैं पक्षी उडा॰न
झील की ऊपरी अनंतता में
काँपती हैं पानी की पत्तियों की लम्बी कतार.....
धूप भीतर रास्ता बनाती है
चुप...चुप...चुप...चुप...चुपचाप.....
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
सच है
सच है
मदनमोहन तरुण
सच है कि
मैं अपने सपनों जितना बडा॰ नहीं हो सका
चाँद के सरोवर में अपना मुँह नहीं धो सका
मगर ये सपने, तुमने नहीं,
मैंने देखे हैं।
सच है कि छिल गये हैं पाँव मेरे
खाई , खंदकों में गिरा हूँ
लक्ष्य नहीं मिला
मगर ये रास्ते, तुमने नहीं,
मैंने चले हैं।
सच है कि झुलस गये हैं पंख मेरे
हास्य का साधन बना हूँ मैं
मगर ये उडा॰नें तुमने नहीं,
मैने भरी हैं।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मदनमोहन तरुण
सच है कि
मैं अपने सपनों जितना बडा॰ नहीं हो सका
चाँद के सरोवर में अपना मुँह नहीं धो सका
मगर ये सपने, तुमने नहीं,
मैंने देखे हैं।
सच है कि छिल गये हैं पाँव मेरे
खाई , खंदकों में गिरा हूँ
लक्ष्य नहीं मिला
मगर ये रास्ते, तुमने नहीं,
मैंने चले हैं।
सच है कि झुलस गये हैं पंख मेरे
हास्य का साधन बना हूँ मैं
मगर ये उडा॰नें तुमने नहीं,
मैने भरी हैं।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
कभी खिले हो
कभी खिले हो
मदनमोहन तरुण
कभी खिले हो
बियावान जंगल के
उन्मत्त गंधव्याकुल
फूल की तरह !
कभी ज्वारिल तरंगों
की तरह
उमडे॰ हो
कैमरा, प्रेस, टीवी, रेडियो
से दूर
सागर की तरह !
कभी चहक उठे हो
पक्षियों की तरह
सुबह की गुलाबी
छुवन से से व्याकुल
हवा के हल्के स्पर्श से
आह्लादित
शहर के बाहर की
अनजान दूरियों में !
कभी झर पडे॰ हो
सुनसान घाटियों में
निर्बाध
उच्छल
उन्माद के निर्झर की तरह !
कभी उड॰ पडे॰ हो
भविष्यरहित
अनाम
दिशाओं की ओर!
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मदनमोहन तरुण
कभी खिले हो
बियावान जंगल के
उन्मत्त गंधव्याकुल
फूल की तरह !
कभी ज्वारिल तरंगों
की तरह
उमडे॰ हो
कैमरा, प्रेस, टीवी, रेडियो
से दूर
सागर की तरह !
कभी चहक उठे हो
पक्षियों की तरह
सुबह की गुलाबी
छुवन से से व्याकुल
हवा के हल्के स्पर्श से
आह्लादित
शहर के बाहर की
अनजान दूरियों में !
कभी झर पडे॰ हो
सुनसान घाटियों में
निर्बाध
उच्छल
उन्माद के निर्झर की तरह !
कभी उड॰ पडे॰ हो
भविष्यरहित
अनाम
दिशाओं की ओर!
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
कौन लिख गया
कौन लिख गया
मदनमोहन तरुण
तुम्हारे पक कर ललाते
सेव की तरह तरसते होठों पर
कौन लिख गया
चुम्बन की जगह
रक्तश्लथ भाषा में
मजहब की आयतें ?
कौन तुम्हारे नवागत यौवन के
हर्षित रोमांकुरों में
बाँध गया कफन के धागे ?
कौन फूलों की जगह
सींच रहा है
सूलियों को ?
किसने उगाई हैं तुम्हारे खेतों में
बारूदें ?
उफ !
अँधेरा किस तरह
हर चीज को निगलता
चला आरहा है !
तुम्हारे मासूम चेहरे को ढूँढ॰ना
हर पल
असम्भव होता जा रहा है।
गहराती ही जा रही है
यह जहरीली आँधी।
तुम्हीं में सँजोए थे
मैंने अपने सारे सपने,
तुम्हीं में देखा था
मैने अपना सारा भविष्य,
तुम्हीं , केवल तुम्हीं
नम थी सुबह की दूब -सी,
तुम्हीं तो थमी थी
आस्था की एक नन्हीं बूँद - सी
अग्नि की लपटों से घिरी
एस ताम्रवर्णी पत्ती पर।
ओह !
कहँ पसारूँ अब मैं अपने पंख ?
कहाँ टिकाऊँ अब मैं अपने पाँव ?
अब यहाँ ऐसी कोई चीज नजर नहीं आती
जो कहीं - न- कहीं से टूटी न हो।
,
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
मदनमोहन तरुण
तुम्हारे पक कर ललाते
सेव की तरह तरसते होठों पर
कौन लिख गया
चुम्बन की जगह
रक्तश्लथ भाषा में
मजहब की आयतें ?
कौन तुम्हारे नवागत यौवन के
हर्षित रोमांकुरों में
बाँध गया कफन के धागे ?
कौन फूलों की जगह
सींच रहा है
सूलियों को ?
किसने उगाई हैं तुम्हारे खेतों में
बारूदें ?
उफ !
अँधेरा किस तरह
हर चीज को निगलता
चला आरहा है !
तुम्हारे मासूम चेहरे को ढूँढ॰ना
हर पल
असम्भव होता जा रहा है।
गहराती ही जा रही है
यह जहरीली आँधी।
तुम्हीं में सँजोए थे
मैंने अपने सारे सपने,
तुम्हीं में देखा था
मैने अपना सारा भविष्य,
तुम्हीं , केवल तुम्हीं
नम थी सुबह की दूब -सी,
तुम्हीं तो थमी थी
आस्था की एक नन्हीं बूँद - सी
अग्नि की लपटों से घिरी
एस ताम्रवर्णी पत्ती पर।
ओह !
कहँ पसारूँ अब मैं अपने पंख ?
कहाँ टिकाऊँ अब मैं अपने पाँव ?
अब यहाँ ऐसी कोई चीज नजर नहीं आती
जो कहीं - न- कहीं से टूटी न हो।
,
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मै जगत की नवल गीता -दृष्टि'
से साभार )
देह से होते हुए
देह से होते हुए
मदनमोहन तरुण
तुम्हारा शरीर आत्मा है
और
तुम्हारा रूप परमात्मा
तुम्हारी बडी॰- बडी॰
पलकों की छाया में
मैं एक अनुभूति भर शेष हूँ
हम एक गर्म गुलाबी सोते की तरह
पिघल कर एकाकार हो रहे हैं
कुछ भी शेष नहीं है
सिर्फ एक अनुभूति के सिवा
यहाँ सुबह की गुलाबी आभा में
दूधिया चाँदनी जादू कर रही है
सूर्य में घुल गया है
बूँद -बूँद चन्द्रमा
दिशाएँ मदहोश
खुद को पी रही हैं
आज पृथ्वी फूल- सी खिल कर
पहली बार कुछ बोल रही है
इसे क्या नाम दोगे ?
रसानन्द ! महानन्द ! ब्रह्मानन्द !
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मैं जगत की नवल गीता- दृष्टि'
से साभार)
मदनमोहन तरुण
तुम्हारा शरीर आत्मा है
और
तुम्हारा रूप परमात्मा
तुम्हारी बडी॰- बडी॰
पलकों की छाया में
मैं एक अनुभूति भर शेष हूँ
हम एक गर्म गुलाबी सोते की तरह
पिघल कर एकाकार हो रहे हैं
कुछ भी शेष नहीं है
सिर्फ एक अनुभूति के सिवा
यहाँ सुबह की गुलाबी आभा में
दूधिया चाँदनी जादू कर रही है
सूर्य में घुल गया है
बूँद -बूँद चन्द्रमा
दिशाएँ मदहोश
खुद को पी रही हैं
आज पृथ्वी फूल- सी खिल कर
पहली बार कुछ बोल रही है
इसे क्या नाम दोगे ?
रसानन्द ! महानन्द ! ब्रह्मानन्द !
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मैं जगत की नवल गीता- दृष्टि'
से साभार)
सोलहवाँ वर्ष
सोलहवाँ वर्ष
मदनमोहन तरुण
जब मैंने तुम्हें देखा था
तुम्हारी आँखें
सोलहवें वर्ष का उत्सव मना रही थीं
और हवाओं की हरी डालियों में फूल
झुक - झुक कर नाच रहे थे
तरंगें किलकारियाँ भर कर
कुछ गा रही थीं
और हवा में उड॰ती जा रही थी
एक पतंग
अपनी चोंच
ऊपर की ओर उठाए
कितना अजीब था वह क्षण
जब सुबह की ललौंछ गोरी धूप
हल्दी में रँग रही थी अपनी चूनर
और पक्षी
नीडों॰ से बाहर थे
नये आसमान
नयी जमीन
नयी दिशाओं को निहारते हुए
जिस पर वसंत का पहला चुंबन
हरिया उठा था।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मैं जगत की नवल गीता- दृष्टि' से साभार)
मदनमोहन तरुण
जब मैंने तुम्हें देखा था
तुम्हारी आँखें
सोलहवें वर्ष का उत्सव मना रही थीं
और हवाओं की हरी डालियों में फूल
झुक - झुक कर नाच रहे थे
तरंगें किलकारियाँ भर कर
कुछ गा रही थीं
और हवा में उड॰ती जा रही थी
एक पतंग
अपनी चोंच
ऊपर की ओर उठाए
कितना अजीब था वह क्षण
जब सुबह की ललौंछ गोरी धूप
हल्दी में रँग रही थी अपनी चूनर
और पक्षी
नीडों॰ से बाहर थे
नये आसमान
नयी जमीन
नयी दिशाओं को निहारते हुए
जिस पर वसंत का पहला चुंबन
हरिया उठा था।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मैं जगत की नवल गीता- दृष्टि' से साभार)
मैं तुम्हारे पास
मैं तुम्हारे पास
मदनमोहन तरुण
मैं तुम्हारे पास कई बार गया हूँ
पुष्प के गंध की तरह
हवाओं में तैरता हुआ।
अग्नि की ऊष्मा की तरह
चेतना में घुलता।
दृष्टि की मुस्कान - सा
तुममें उतरता
चुपचाप।
ये दूरियाँ
अब मुझे उद्भान्त नहीं करतीं
तुम्हारी गुलाबी आभा के
खिलखिलाते स्पर्श में
जन्म लेती हैं
नयी - नयी सृष्टियाँ मुझमें।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
' मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' से साभार)
मदनमोहन तरुण
मैं तुम्हारे पास कई बार गया हूँ
पुष्प के गंध की तरह
हवाओं में तैरता हुआ।
अग्नि की ऊष्मा की तरह
चेतना में घुलता।
दृष्टि की मुस्कान - सा
तुममें उतरता
चुपचाप।
ये दूरियाँ
अब मुझे उद्भान्त नहीं करतीं
तुम्हारी गुलाबी आभा के
खिलखिलाते स्पर्श में
जन्म लेती हैं
नयी - नयी सृष्टियाँ मुझमें।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
' मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' से साभार)
Saturday, October 21, 2006
मैं तुम्हारे पास
मैं तुम्हारे पास
मदनमोहन तरुण
मैं तुम्हारे पास कई बार गया हूँ
पुष्प के गंध की तरह
हवाओं में तैरता हुआ।
अग्नि की ऊष्मा की तरह
चेतना में घुलता।
दृष्टि की मुस्कान - सा
तुममें उतरता
चुपचाप।
ये दूरियाँ
अब मुझे उद्भान्त नहीं करतीं
तुम्हारी गुलाबी आभा के
खिलखिलाते स्पर्श में
जन्म लेती हैं
नयी - नयी सृष्टियाँ मुझमें।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
' मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' से साभार)
मदनमोहन तरुण
मैं तुम्हारे पास कई बार गया हूँ
पुष्प के गंध की तरह
हवाओं में तैरता हुआ।
अग्नि की ऊष्मा की तरह
चेतना में घुलता।
दृष्टि की मुस्कान - सा
तुममें उतरता
चुपचाप।
ये दूरियाँ
अब मुझे उद्भान्त नहीं करतीं
तुम्हारी गुलाबी आभा के
खिलखिलाते स्पर्श में
जन्म लेती हैं
नयी - नयी सृष्टियाँ मुझमें।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
' मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' से साभार)
Magar Bachche
मगर बच्चे
मदनमोहन तरुण
मगर कहाँ
किस
रास्ते से आएगा
वसंत बन्धु !
कैलेण्डर की ऐसी कौन - सी तरीख है
जो
कम -से- कम अधजली न हो
कौन - सी
ऐसी जगह है
जहाँ बच्चे -बूढे॰ , औरतों तक को
निगल कर
अब भी जीभ लपलपाती आग न हो
आग
जो जमीन से नहीं
अब दीवारों के रेशे -रेशे में
रिसती हुई
आसमान तक पहुँचने लगी है
धुएँ से काले हैं
अधजले ठूँठ
आधा सूरज तक
काला है
हालत इतनी अजीब है कि
चिनगारियों को फूल समझ कर
लोग अपने हाथ जला बैठे हैं
वृक्षों की जडें॰ तक
सुलग रही हैं
मिट्टी की गहराइयों में भी
कोई चीज
सुरक्षित नहीं हैं
भाषाएँ तक खून से शराबोर हैं
कविताएँ तक धधक रही हैं
मगर धधकती आग के बीचोबीच
इस मैदान में
जहाँ अब भी बची है
थोडी॰ - सी हरी दूब
वहाँ
इस दुष्काल में भी
क्यों खडे॰ हैं
बच्चे
अपने हाथों में
गेंद और क्रिकेट का बल्ला लिए
एक - दूसरे को शरारत से धकेलते हुए
उनकी आँखों में
खौफ की जगह
अब भी कैसी चमक है !
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मैं जगत की नवल गीता- दृष्टि' से साभार)
मदनमोहन तरुण
मगर कहाँ
किस
रास्ते से आएगा
वसंत बन्धु !
कैलेण्डर की ऐसी कौन - सी तरीख है
जो
कम -से- कम अधजली न हो
कौन - सी
ऐसी जगह है
जहाँ बच्चे -बूढे॰ , औरतों तक को
निगल कर
अब भी जीभ लपलपाती आग न हो
आग
जो जमीन से नहीं
अब दीवारों के रेशे -रेशे में
रिसती हुई
आसमान तक पहुँचने लगी है
धुएँ से काले हैं
अधजले ठूँठ
आधा सूरज तक
काला है
हालत इतनी अजीब है कि
चिनगारियों को फूल समझ कर
लोग अपने हाथ जला बैठे हैं
वृक्षों की जडें॰ तक
सुलग रही हैं
मिट्टी की गहराइयों में भी
कोई चीज
सुरक्षित नहीं हैं
भाषाएँ तक खून से शराबोर हैं
कविताएँ तक धधक रही हैं
मगर धधकती आग के बीचोबीच
इस मैदान में
जहाँ अब भी बची है
थोडी॰ - सी हरी दूब
वहाँ
इस दुष्काल में भी
क्यों खडे॰ हैं
बच्चे
अपने हाथों में
गेंद और क्रिकेट का बल्ला लिए
एक - दूसरे को शरारत से धकेलते हुए
उनकी आँखों में
खौफ की जगह
अब भी कैसी चमक है !
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मैं जगत की नवल गीता- दृष्टि' से साभार)
तुम्हें क्या मालूम
तुम्हें क्या मालूम
मदनमोहन तरुण
तुम्हें क्या मालूम
कि
तुमने
छुप - छूप कर
मुझे कितनी बार देखा है !
तुम्हें क्या मालूम
कि
तुमने
छुप - छुप कर
मुझे कितनी बार छुआ है !
तुम्हें क्या मालूम
कि
तुमने अपनी साँसों से
कितनी बार मुझसे कुछ कहा है !
तुम्हें क्या मालूम
कि
तुम मुझ पर
गुलाबी गंध की तरह
धारासार बरसती रही हो !
तुम्हारा यह
नींदभरी आँखों से देखना ही तो है
जो मुझे बार - बार रचता है
नये - नये अर्थों में,
नये - नये आयामों में
हर रोज सागर में उतरती
सुबह की नयी
धूप की नदी तरह !
तुम्हें क्या मालूम
कि
तुम मुझे पुकारती रहती हो
मेरी अतल गहराइयों के सन्नाटों में
अकेली यादों सी गूंजती हुई !
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
' मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' से साभार)
मदनमोहन तरुण
तुम्हें क्या मालूम
कि
तुमने
छुप - छूप कर
मुझे कितनी बार देखा है !
तुम्हें क्या मालूम
कि
तुमने
छुप - छुप कर
मुझे कितनी बार छुआ है !
तुम्हें क्या मालूम
कि
तुमने अपनी साँसों से
कितनी बार मुझसे कुछ कहा है !
तुम्हें क्या मालूम
कि
तुम मुझ पर
गुलाबी गंध की तरह
धारासार बरसती रही हो !
तुम्हारा यह
नींदभरी आँखों से देखना ही तो है
जो मुझे बार - बार रचता है
नये - नये अर्थों में,
नये - नये आयामों में
हर रोज सागर में उतरती
सुबह की नयी
धूप की नदी तरह !
तुम्हें क्या मालूम
कि
तुम मुझे पुकारती रहती हो
मेरी अतल गहराइयों के सन्नाटों में
अकेली यादों सी गूंजती हुई !
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
' मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' से साभार)
कौन हो तुम
कौन हो तुम
मदनमोहन तरुण
तुम खडी॰ रहती हो परछाईं की तरह
जब सन्नाटे में सरक कर दीवारें
एक दूसरे से बतियाने लगती हैं।
तुम खडी॰ रहती हो परछाईं की तरह
जब दो सेनाओं के घायल सिपाही
शाम को
एक- दूसरे के जख्मों का दर्द पूछते हैं।
तुम खडी॰ रहती हो परछाई की तरह
जब मशीने कराहने लगती हैं थक कर
दिनभर की मिहनत के बाद।
तुम खडी॰ रहती हो परछाईं की तरह
मन के अछूते निविड॰ अंधकार में
जहाँ
कभी - कभी अपनी पहुँच भी नहीं होती।
तुम मौन की तरह क्या हो मेरे भीतर ?
तुम्हारा इस तरह सदा खडे॰ रहना मेरे पास
कई बार
मुझे भय से झुरझुरा देता है,
तुम्हारा जरा भी दूर जाना
मुझे निःसत्व कर देता है।
तुम मौन की तरह क्या हो मेरे भीतर ?
कौन हो तुम !
जो सदा खडी॰ रहती हो मेरे भीतर
परछाईं की तरह ?
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
' मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' से साभार)
मदनमोहन तरुण
तुम खडी॰ रहती हो परछाईं की तरह
जब सन्नाटे में सरक कर दीवारें
एक दूसरे से बतियाने लगती हैं।
तुम खडी॰ रहती हो परछाईं की तरह
जब दो सेनाओं के घायल सिपाही
शाम को
एक- दूसरे के जख्मों का दर्द पूछते हैं।
तुम खडी॰ रहती हो परछाई की तरह
जब मशीने कराहने लगती हैं थक कर
दिनभर की मिहनत के बाद।
तुम खडी॰ रहती हो परछाईं की तरह
मन के अछूते निविड॰ अंधकार में
जहाँ
कभी - कभी अपनी पहुँच भी नहीं होती।
तुम मौन की तरह क्या हो मेरे भीतर ?
तुम्हारा इस तरह सदा खडे॰ रहना मेरे पास
कई बार
मुझे भय से झुरझुरा देता है,
तुम्हारा जरा भी दूर जाना
मुझे निःसत्व कर देता है।
तुम मौन की तरह क्या हो मेरे भीतर ?
कौन हो तुम !
जो सदा खडी॰ रहती हो मेरे भीतर
परछाईं की तरह ?
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
' मैं जगत की नवल गीता - दृष्टि' से साभार)
अनागतकी प्रतीक्षा
अनागतकी प्रतीक्षा
मदनमोहन तरुण
मैंने देखा
ऋतुएँ
वृक्षों में
निरन्तर यात्रा करती हुई
दिशाओं की खोज कर रही थीं
और
वृक्ष अपनी तमाम उँगलियाँ
आकाश की ओर उठाए
साश्चर्य ऊपर देखते हुए
प्रश्नचकित थे
नदियाँ आपने घूर्णावर्तों में
खुद की तलाश कर रही थीं
सारे मार्ग
सागर- सागर
ज्वार- ज्वार
विकल थे
आकाश टूट- फूट रहा था
पृथ्वी आलोडि॰त - विलोडि॰त
हो रही थी
हवाएँ हूहती हुई
कुछ तलाश कर रही थीं
खोई हुई दिशाओं
और
धारासार वर्षा से मिटे- मिटे
इतिहास के
अचिह्नित मार्गों पर
फिसल - फिसल रहा था
स्तंभित समय
किन्तु
इस आलोड॰न - विलोड॰न की
विषम वेला में भी
सृष्टि के नाभि- केन्द्र पर
पृथ्वी
मेरी उँगली थामे
खडी॰ थी
उस अनागत की प्रतीक्षा में
जिसकी आँखों में
सपने होतो हैं।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मैं जगत की नवल गीता- दृष्टि' से साभार)
मदनमोहन तरुण
मैंने देखा
ऋतुएँ
वृक्षों में
निरन्तर यात्रा करती हुई
दिशाओं की खोज कर रही थीं
और
वृक्ष अपनी तमाम उँगलियाँ
आकाश की ओर उठाए
साश्चर्य ऊपर देखते हुए
प्रश्नचकित थे
नदियाँ आपने घूर्णावर्तों में
खुद की तलाश कर रही थीं
सारे मार्ग
सागर- सागर
ज्वार- ज्वार
विकल थे
आकाश टूट- फूट रहा था
पृथ्वी आलोडि॰त - विलोडि॰त
हो रही थी
हवाएँ हूहती हुई
कुछ तलाश कर रही थीं
खोई हुई दिशाओं
और
धारासार वर्षा से मिटे- मिटे
इतिहास के
अचिह्नित मार्गों पर
फिसल - फिसल रहा था
स्तंभित समय
किन्तु
इस आलोड॰न - विलोड॰न की
विषम वेला में भी
सृष्टि के नाभि- केन्द्र पर
पृथ्वी
मेरी उँगली थामे
खडी॰ थी
उस अनागत की प्रतीक्षा में
जिसकी आँखों में
सपने होतो हैं।
(मदनमोहन तरुण की पुस्तक
'मैं जगत की नवल गीता- दृष्टि' से साभार)
Tuesday, October 03, 2006
JyotiGanga
ज्योति गंगा
- मदनमोहन तरुण
बन्ध तोडो॰ , प्राण की सूखी धरा पर ,
ज्योति की गंगा उतरना चाहती है।
वृत्त की आवृत्ति, पुनरावृत्ति, कोल्हू के वृषभ - सा,
कर्म करना , उदर भरना , मृत्यु वरना , है न जीवन।
खोज है जीवन , गगन - विस्तार, सागर की गहनता,
और उद्घाटन घनों में बद्ध दिनकर की प्रखरता।
नयन खोलो ,गगन - घन - अंचल हटा कर,
विद्यु की वनिता विहँसना चाहती है।
मृत्यु की आराधना में भूल कोई रह गयी है ,
इसलिए तुम अमरता से रिक्त होकर रह गये हो।
चले थे तुम संग अपने ,सूर्य लेकर ,चन्द्र लेकर ,
किन्तु वे तम के सदन की अर्गला में बँध गये हैं।
खोल दो सब द्वार, दुग्धिल चन्द्रिका से ,
आज सरसा सिक्त होना चाहती है।
,
- मदनमोहन तरुण
बन्ध तोडो॰ , प्राण की सूखी धरा पर ,
ज्योति की गंगा उतरना चाहती है।
वृत्त की आवृत्ति, पुनरावृत्ति, कोल्हू के वृषभ - सा,
कर्म करना , उदर भरना , मृत्यु वरना , है न जीवन।
खोज है जीवन , गगन - विस्तार, सागर की गहनता,
और उद्घाटन घनों में बद्ध दिनकर की प्रखरता।
नयन खोलो ,गगन - घन - अंचल हटा कर,
विद्यु की वनिता विहँसना चाहती है।
मृत्यु की आराधना में भूल कोई रह गयी है ,
इसलिए तुम अमरता से रिक्त होकर रह गये हो।
चले थे तुम संग अपने ,सूर्य लेकर ,चन्द्र लेकर ,
किन्तु वे तम के सदन की अर्गला में बँध गये हैं।
खोल दो सब द्वार, दुग्धिल चन्द्रिका से ,
आज सरसा सिक्त होना चाहती है।
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